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Chaudhary Charan Singh

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प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया)
बौद्धिक सभा

राष्ट्रभाषा के योग्य केवल हिन्दी

आज देश के सामने जो बड़ी-बड़ी समस्याएं हैं, उनमें से राष्ट्रभाषा की समस्या भी एक है। यह अभागा भारतवर्ष सैकड़ों वर्ष पराधीन रहा। इसका प्रधान कारण यह था कि देश भर में कोई एक शक्तिशाली संगठन न था। छोटे-छोटे माॅडलिक राज्यों में हमारा देश विभक्त था, विभिन्न सम्प्रदाय थे और विभिन्न भाषाएं। विदेशी आया और विभिन्न राज्य, प्रांत और कौम या सम्प्रदायों को अलग-अलग करके पीट लिया। अतएव इतिहास से हमने यह सीखा कि भारत देश की जनता के विभिन्न वर्गाें, सम्प्रदायों को एक सूत्र में बांधने और इस प्रकार राष्ट्रीय जीवन को संगठित करने के लिये एक भाषा के माध्यम की नितांत आवश्यकता है। राष्ट्रीयता की जड़ एक भाषा है, यह आज सबको मान्य है। परन्तु प्रश्न यह है कि भाषा कौन सी हो?जब यहां अंगे्रजों का राज्य था और देश अखंड था, जो हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाने की बात भी कभी कभी सुनने में आती थी। अब उर्दू शब्द की चर्चा तो बन्द हो गई है, परन्तु उसका स्थान हिन्दुस्तानी ने ले लिया है। हिन्दुस्तानी भाषा से अभिप्राय उस भाषा से है, जिसको कहा जाता है कि उत्तरी भारत के कुछ हिस्से के जन-साधारण बोलते है और जो देवनागरी व फारसी दोनों लिपियों में लिखी जाती है।

स्वयं सिद्ध सी बात है कि इन दोनों भाषाओं में से राष्ट्रभाषा का स्थान उसी को दिया जा सकता है, जिसकी शब्दावली, उच्चारण, लिपि और वर्णमाला अन्य प्रांतीय भाषाओं की शब्दावली आदि से अधिक से अधिक निकट हो, जिसकी लिपि सुगम और वैज्ञानिक हो और जिसमें ऊंचे से ऊंचे साहित्यिक ग्रंथ लिखे जा सकें। इन कसौटियों पर कसकर देखा जाए, तो राष्ट्रभाषा के पद पर केवल हिन्दी को ही आसीन किया जा सकता है, हिन्दुस्तानी को नहीं।

हिन्दी व अन्य प्रांतीय भाषाओं की एक ही जननी है अर्थात् राष्ट्रभाषा के योग्य केवल हिन्दी संस्कृत। इसलिये हिन्दी उस हिन्दुस्तानी की अपेक्षा, जो फारसी लिपि में भी लिखी जाए, बंगाली, गुजराती, मराठी आदि के अधिक निकट है। इस कारण हिन्दी को सारे भारतवासी अधिक सरलता से सीख, पढ़ व लिख सकते हैं। देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता के आगे तो विरोधी पक्ष भी आज नत-मस्तक है। उस दिशा में संसार की कोई लिपि भी उसके सामने नहीं ठहर सकती। फारसी-लिपि की अवैज्ञानिकता इतनी स्पष्ट है कि उसके सम्बन्ध में कुछ भी कहना निरर्थक है, रही साहित्य-निर्माण की बात, सो हिन्दी और उसकी मां संस्कृत के पास शब्दकोश का बहुत बड़ा भण्डार है।

हिन्दुस्तानी में साहित्य-निर्माण करने का प्रयत्न बालू में से तेल निकालने जैसा है। जन साधारण जो भाषा बोलते हैं, उसमें न्याय, दर्शन, गणित, रसायन, वैद्यक, वनस्पति व जीवशास्त्र या विज्ञान की कोई भी पुस्तक लिखी नहीं जा सकती। उसके लिये संस्कृत-निष्ठ हिन्दी की शरण लेनी होगी या अरबी-निष्ठ उर्दू की, परन्तु फिर वह हिन्दुस्तानी न रहेगी।

राष्ट्रभाषा की समस्या पर विचार करते समय हम असंबद्ध बातों का कोई प्रभाव न लें, तो इसकी समीक्षा बड़ी आसानी से हो सकती है, परन्तु हमारा दुर्भाग्य है कि ऐसा हो नहीं पाता। हम लोग तर्क से आलोकित सीधे, प्रशस्त मार्ग को छोड़कर भावनाओं और कल्पनाओं की घाटियों और कंटकाकीर्ण पगडण्डियों में बहक जाते हैं। हिन्दुस्तानी के समर्थक ऐसा अनुभव करते हैं कि केवल हिन्दी को अपनाकर हम असंख्य मुसलमानों के साथ एक ओर अन्याय करेंगे, हिन्दू सम्प्रदायिकता की आग को भड़काएंगे और जो लोग ‘हिन्दू-राष्ट्र‘ की बात करते हैं, उनके हाथ मजबूत करेंगे। उनका ऐसा भी विचार है कि केवल देवनागरी में लिखित हिन्दी-भाषा की बात कहना, मानो संकीर्णता का प्रचार करना तथा देश को बीते हुए अन्धकार युग की ओर ले जाना तथा हिन्दू-पुनरुत्थान का प्रयत्न है। यह भी कहा जाता है कि हिन्दी के समर्थक एक प्रकार के साम्राज्यवादी हैं और ये लोग अन्य प्रांतीय भाषाओं को पनपने देना नहीं चाहते। हिन्दुस्तानी का समर्थन करते समय पूज्य दिवंगत महात्मा जी के पुण्य-नाम का भी प्रयोग किया जाता है और हिन्दुस्तानी के पक्ष में उनकी राय को एक अकाट्य-सत्य के रूप में उपस्थित किया जाता है।

अब हमको देखना यह है कि क्या हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने से मुसलमानों के साथ कोई अन्याय होता है?पहली बात तो यह कि धर्म का भाषा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता। चीन देश के रहने वाले मुसलमान चीनी-भाषा बोलते और चीनी रहन-सहन बरतते हैं और फिर भी अच्छे मुसलमान हैं। यही बात यूरोप निवासी मुसलमानों के सम्बन्ध में कही जा सकती है। इस सम्बन्ध में दूसरी बात यह है कि भारतवर्ष में रहने वाले चार करोड़ मुसलमानों में से मुश्किल से एक करोड़ मुसलमानों, जो संयुक्त-प्रांत और बिहार में अब रहते हैं, फारसी लिपि का प्रयोग करते हैं। बंगाली, गुजराती, मराठी और दक्षिण प्रदेश के मुसलमान अपने-अपने प्रांतों की भाषा और लिपि का प्रयोग करते हैं और फारसी लिपि से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। हिन्दुस्तानी के समर्थकों का एक करोड़ आदमियों की संतुष्टि के लिये शेष तैंतीस करोड़ आदमियों पर फारसी लिपि लाद देना कहां तक न्याय संगत होगा, यह समझ में नही आता। इसके अतिरिक्त राष्ट्रभाषा यदि दो लिपियों में लिखी जाय, तो इसका यह अर्थ हुआ कि तमिल आदि प्रांतों के निवासियों को तीन-तीन लिपियां सीखनी होंगी। इससे बच्चों के मानसिक-विकास पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, यह सहज में अनुमान लगाया जा सकता है?

साम्प्रदायिकता की आग भड़काने की जो बात कही जाती है, इस सम्बन्ध में मैं बहुत शिष्टता के साथ केवल इतना कहना चाहता हूं कि जो लोग हिन्दी-भाषा को राष्ट्र-भाषा बनाए जाने में साम्प्रदायिकता की झलक देखते हैं, वह स्वयं आंखों पर साम्प्रदायिकता का रंगीन चश्मा पहने हुए हैं। उन्होंने बराबर देश की हर समस्या को हिन्दु-मुस्लिम रंग में रंगकर देखा है। पग-पग पर हिन्दू-मुसलमान शब्दों को प्रयोग किया गया है और एक प्रकार से अनजाने राष्ट्रीय-जीवन की एकता पर कुठाराघात किया है। इसी प्रकार यह दो लिपियों का समर्थन करके देश की विकेन्द्रीकरण करने वाली शक्तियों को प्रश्रय दे रहे हैं। रही देश को प्राचीन हिन्दू-पुनरुत्थान की ओर ले जाने की बात, सो ऐसा कहने वाले लोग भूल जाते हैं कि राष्ट्रवाद केवल राजनीतिक आधार ही नहीं रखता है, उसकी सांस्कृतिक आधार-भित्ती भी होती है। यही नहीं, बल्कि राष्ट्रवाद की कल्पना में सांस्कृतिक पुट कदाचित राजनीतिक अंश से भी अधिक होता है और यह सर्वसम्मत बात है कि संस्कृति का सबसे बड़ा प्रतीक भाषा होती है। क्या हम अंगे्रजों से यह सौदा करने को तैयार हो सकते थे कि वे भारत को इस शर्त पर छोड़ जाएं कि हम लोग अपनी भाषा आदि छोड़कर अंग्रेजी-भाषा ग्रहण कर लें और अंग्रेजी-संस्कृति का बाना पहन लें। अगर नहीं तो सिद्ध है कि हमारे मस्तिष्क में आता था, उसमें हिन्दी और हिन्दी के साथ जो और सब भावनाएं निहित हैं, वे हमारे सामने मूर्तिमान होकर उपस्थित होती थीं। इसे चाहे हम पुनरूत्थान कहें और चाहे नये सिरे से एक शक्तिशाली आधार पर पुनर्निर्माण, बात एक ही है। अंगे्रजी-काल मंे जहां तक मुझको याद है, प्रांतीय भाषा के समर्थकों ने यह आवाज नहीं उठाई कि अंगे्रजी के रहते हुए उनकी भाषा का विकास असम्भव है। फिर आज अंगे्रजी का स्थान हिन्दी को जब दिये जाने की बात कही जाती है, तो फिर साम्राज्यवाद कैसा? हिन्दी, प्रांतीय भाषाओं के अधिकार को छीनना नहीं चाहती, वह अपने-अपने स्थान पर फलें-फूलें, उनमें प्रादेशिक साहित्य भी बनता रहे और नित्य-प्रति के व्यवहार में भी वे काम आती रहें। हमारा आशय तो केवल इतना है कि यह देश एक लड़ी में बंध जाए। इसके लिये अन्तप्र्रान्तीय व्यवहार की एक भाषा का होना आवश्यक है। हम केवल यही चाहते हैं कि जो स्थान अब तक विदेशी भाषा को प्राप्त था, वह अब इस देश के सबसे बड़े भाग की भाषा को मिल जाए।